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यूहन्ना रचित सुसमाचार – ज्योती अंध्कार में चमकती है।
पवित्र शास्त्र में लिखे हुए यूहन्ना के सुसमाचार पर आधारित पाठ्यक्रम
दूसरा भाग – दिव्य ज्योती चमकती है (यूहन्ना 5:1–11:54)
क - यीशु की यरूशलेम में अन्तिम यात्रा (यूहन्ना 7:1 - 11:54) अन्धकार का ज्योती से अलग होना
1. झोपड़ियों के पर्व के समय पर यीशु का वचन (यूहन्ना 7:1 – 8:59)

ब) लोगों और उच्च न्यायालय के सदस्यों के बीच यीशु के विषय में निराशा जनक विचार (यूहन्ना 7:14-53)


यूहन्ना 7:14-18
“14 जब पर्व के आधे दिन बीत गए; तो यीशु मन्दिर में जाकर उपदेश करने लगा | 15 तब यहूदियों ने चकित हो कर कहा , ‘इसे बिन पढ़े विद्या कैसे आ गई ?’ 16 यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, ‘मेरा उपदेश मेरा नहीं, परन्तु मेरे भेजनेवाले का है | 17 यदि कोई उसकी इच्छा पर चलना चाहे, तो वह इस उपदेश के विषय में जान जायेगा कि यह परमेश्वर की ओर से है या मैं अपनी ओर से कहता हूँ | 18 जो अपनी ओर से कुछ कहता है, वह अपनी ही बड़ाई चाहता है , परन्तु जो अपने भेजनेवाले की बड़ाई चाहता है वही सच्चा है, और उसमें अधर्म नहीं |”

यीशु को अपने शत्रुओं से मृत्यु या किसी तरह की हानी का डर नहीं था | आप अपने पिता की इच्छा और सहयोग से पर्व के समय चुपके से येरूशलेम को चले गये | वहां आपने अपने आप को नहीं छिपाया बल्की मंदिर के आंगन में पहुंच कर एक प्रख्यात अध्यापक के तौर पर बड़े साहस पूर्वक अपना सुसमाचार सिखाने लगे | लोगों को ऐसा लगा जैसे परमेश्वर स्वंय संबोधित कर रहा है | इस लिये वे आपस में एक दूसरे से पूछने लगे कि इस नौजवान में इतना गहरा धार्मिक ज्ञान कहाँ से आया? इसने पवित्र वचन के किसी प्रसिद्द विद्वान से शिक्षा भी नहीं पाई | एक बढ़ई बगैर शिक्षा पाये हमें परमेश्वर के पूर्ण सत्य का ज्ञान कैसे दे सकता है?

यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, “यह सच है कि मेरे पास ज्ञान है और मैं सत्य का अध्यापक हूँ बल्की इस से भी बढ़ कर बात यह है कि मैं सच में परमेश्वर का वचन हूँ | परमेश्वर का प्रत्येक विचार और इच्छा मुझ में उपस्थित है | मैं जो कुछ सिखाता हूँ वह मेरा अपना नहीं है | मैं परमेश्वर की आवाज़ हूँ और वो मुझ में रहता है | मेरा पिता मुझे सिखाता है | मैं उसके विचार, इरादे, उद्देश और शक्ती की परिपूर्णता को जानता हूँ | मैं स्वंय अपने विचार लेकर नहीं आया क्योंकी केवल परमेश्वर के विचार ही सच्चे होते हैं | मैं उस प्रकाशित वचन को पूरा करता हूँ जो स्पष्ट नहीं होता |”

इस तरह आपने अपने पिता की महीमा की और अपने आप को पिता का प्रेरित कह कर उसके आज्ञाकारी बने रहे | आप स्वंय अपनी इच्छा से नहीं आये बल्की अपने पिता के नाम से पूरे अधिकार के साथ आये | इस तरह यीशु एक ही साथ पिता के पुत्र और प्रेरित बन जाते हैं | आप हमारे ध्यान, विश्वास और अराधना के वैसे ही पात्र हैं जैसे हमारा स्वर्गीय पिता है |

यहूदियों को आप पर विश्वास करना आसान हो, इस लिये आपने उन्हें एक सुविधाजनक मार्ग बताकर वचन दिया कि आप की शिक्षा परमेश्वर की इच्छा के अनुकूल है | इस लिये यीशु की शिक्षा और आपके व्यक्तीत्व के खरेपन का निर्णायक सबूत क्या है ? आप ने कहा, “अगर तुम मेरे सुसमाचार के अनुसार चलने की कोशिश करो तो तुम उसकी महानता को जान लोगे | अगर तुम मसीह के वचन के प्रत्येक पद का प्रयोग करोगे तो तुम देखोगे कि आपके वचन साधारण मनुष्य के शब्द नहीं बल्की दिव्य हैं |

मसीह की शिक्षा पर चलने से पहले तुम्हें निश्चय कर लेना चाहिये | क्या तुम्हारी भी वही इच्छा है जो मसीह की थी? तुम्हारी इच्छा परमेश्वर की इच्छा के अनुकूल हुए बिना तुम प्रभु का सच्चा ज्ञान नहीं पा सकते | जब तुम्हारी इच्छा परमेश्वर यानी मसीह की इच्छा के अधीन होती है तब तुम्हारे ज्ञान का दर्जा ऊँचा और नया होने लगता है और तुम परमेश्वर को ऐसे जानने लगोगे जैसा वो है |

जब कोई परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की कोशिश करता है, जैसा मसीह ने हमें सिखाया है, तब उसे सुसमाचार और व्यवस्था के बीच चौड़ी खाड़ी दिखाई देगी | हमारे परमेश्वर ने हमारे कंधों पर केवल भारी वज़न नहीं डाला है बल्की साथ ही साथ हमें आवयश्क शक्ती भी दी है ताकी उसे सहन कर सकें | तुम आनन्दपूर्वक मसीह की इच्छा पूरी कर सकोगे | जो कोई मसीह की आज्ञा मानता है उसे आपके प्रेम में जीने की शक्ती प्राप्त होती है | आप की शिक्षा असफलता की ओर नहीं ले जाती जैसा कि मूसा की व्यवस्था के कारण होता था बल्की परमेश्वर के अनुग्रह की परिपूर्णता में जीने देती है | जो कोई मसीह की शिक्षा में प्रकट की हुई परमेश्वर की इच्छा पर चलता है वह स्वंय परमेश्वर से जुड़ जाता है और जान जाता है कि मसीह कोई मानवीय अध्यापक नहीं हैं परन्तु परमेश्वर का अवतारित वचन हैं | बल्की आप पापों की क्षमा ले कर आते हैं और हमें परमेश्वर के जीवन की शक्ती प्रदान करते हैं |

यूहन्ना 7:19-20
“19 ‘क्या मूसा ने तुम्हें व्यवस्था नहीं दी? तौ भी तुम में से कोई व्यवस्था पर नहीं चलता | तुम क्यों मुझे मार डालना चाहते हो?’ 20 लोगों ने उत्तर दिया, ‘तुझ में दुष्टात्मा है | कौन तुझे मार डालना चाहता है?’”

मसीह के पवित्र आचरण ने उन्हें यहूदियों से यह कहने का अधिकार दिया कि “तुम ने व्यवस्था पाई परन्तु किसी ने भी उसका ठीक से प्रयोग नहीं किया |” इस वक्तव्य ने यहूदी कौम के दिलों को छेद डाला और इस बात पर जोर दिया कि पुराने नियम के एक भी सदस्य ने व्यवस्था की आवयश्क्ताओं को पूरा नहीं किया | अगर कोई व्यक्ती किसी एक भी आज्ञा का पालन नहीं करता तो वो सभी आज्ञाओं का अपराधी गिना जाता है और उस पर परमेश्वर का क्रोध उतरता है | इस घोषणा के साथ यीशु ने यहू दियों की धार्मिकता के दावे को रद्द कर दिया और उन्हें बताया कि न्याय शास्त्रियों का उत्साह और प्रयास केवल उनका अपने आप को धोका देना है |

यीशु ने यह भी घोषणा की कि आप उनके नेताओं की इच्छा जानते हैं जो आप को नष्ट करना चाहते हैं |

यीशु से कुछ भी छिपा नहीं है | आप ने अपने श्रोताओं के ऊपरी उत्साह के विरुध चेतावनी दी और यह भी बताया कि आप के अनुयायी बनने की क्या कीमत देना पड़ेगी |

साथ ही साथ आप ने उनसे यह भी पूछा: “तुम मुझे क्यों मारना चाहते हो?”

यीशु के शब्द सुन कर भीड़ चौंकी और डर गई क्योंकी यीशु ने उनसे कहा कि उन में से कोई भी धार्मिक नहीं है | उनका उत्तर उनके षड्यंत्र पर पर्दा डाल रहा था | “नहीं, नहीं, आपको कौन मार डालना चाहता है ? परमेश्वर ना करे |” कुछ लोगों की यह धारणा थी कि आप पर किसी दुष्ट आत्मा का प्रभाव पड़ा है | वे अपनी घ्रणा में अंधे हो रहे थे और पवित्र आत्मा और दुष्ट आत्मा को पहचानने में असमर्थ थे | वे परमेश्वर के प्रेम के ज्ञान की सारी सदभावना को खो बैठे थे |

प्रश्न:

53. सुसमाचार के परमेश्वर की तरफ से आने के क्या सबूत हैं ?

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