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यूहन्ना रचित सुसमाचार – ज्योती अंध्कार में चमकती है।
पवित्र शास्त्र में लिखे हुए यूहन्ना के सुसमाचार पर आधारित पाठ्यक्रम
दूसरा भाग – दिव्य ज्योती चमकती है (यूहन्ना 5:1–11:54)
अ – यरूशलेम की दूसरी यात्रा (यूहन्ना 5:1–47) –यीशु और यहूदियों के बीच शत्रुता का उभरना

5. विश्वास ना करने का कारण (यूहन्ना 5:41-47)


यूहन्ना 5:41–44
“ 41 मैं मनुष्यों से आदर नहीं चाहता | 42 परन्तु मैं तुम्हें जानता हूँ कि तुम में परमेश्वर का प्रेम नहीं | 43 मैं अपने पिता के नाम से आया हूँ, और तुम मुझे ग्रहण नहीं करते; यदि अन्य कोई अपने ही नाम से आए , तो उसे ग्रहण कर लोगे | 44 तुम जो एक दूसरे से आदर चाहते हो और वह आदर जो एकमात्र परमेश्वर की और र से है , नहीं चाहते, किस प्रकार विश्वास कर सकते हो |”

यीशु ने अपने दुश्मनों के कवच को नष्ट कर दिया और उन्हें उनके दिलों की दशा और भविष्य का भाग्य बता दिया | आपने उनकी अपवित्र इच्छा और दुष्ट चरित्र के मूल तथ्य को प्रदर्शित किया |

आपको लोगों या उनके नेताओं की प्रशन्सा की अवयशकता नहीं थी क्योंकि आप को अपने मिशन पर कोई संदेह न था | आप की भावना आपकी सेवा के प्रकट परिणाम पर निर्भर ना थी और अगर सम्मान दिया भी जाता तो आप इस सम्मान को अपने पिता को अर्पन करते | आप ने हमें सिखाया कि सब से पहले अपने स्वर्गीय पिता से प्रार्थना करें, ना की स्वंय आप से और मसीहियों को यह भी सिखाया कि स्वर्गीय पिता से इस प्रकार कहें : “हे हमारे पिता | तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए | तेरा राज्य आए | तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे

पृथ्वी पर भी पूरी हो |” यीशु ने स्वंय अपने लिये किसी तरह का सम्मान या महीमा प्राप्त करना पसन्द नहीं किया | आप के पिता की महीमा आप की महत्वकांक्षा थी और परमेश्वर के अधिकार की लालसा आप को खा गई |

उत्पत्ती, उद्धार और परिपूर्णता में परमेश्वर का पुत्र ही प्रोत्साहन है | यही पवित्र त्रिय के मूल तथ्य का निचोड़ है | व्यवस्था का पालन और परिपूर्णता का समबंध उसके प्रेम के लक्षण हैं | जिस किसी में ये गुण पाये जाते हैं वो अपने लिये नहीं जीता और ना ही अपना सम्मान चाहता है बल्की दूसरों का सम्मान करता है और स्वार्थहीनता से दूसरों की सेवा करता है | वो अपनी सारी संपती गरीबों को देता है | प्रेम कभी टलता नहीं |

कोई व्यक्ती स्वंय अपनी सहमती से परमेश्वर से प्रेम नहीं करता परन्तु जो व्यक्ती पाप की गन्दगी से दुखी होकर पश्चताप करता है और मसीह में परमेश्वर के प्रेम पर विश्वास करता है वो पौलुस प्रेरित की तरह स्वीकार करता है कि हमारे दिलों में परमेश्वर का प्रेम, प्रदान किये हुए पवित्र आत्मा के द्वारा उंडेल दिया गया है | यह प्रेम, बलीदान, नम्रता और सहनशीलता में प्रगट होता है | जो कोई परमेश्वर के आत्मा के लिये अपना दिल खोल देता है वो पवित्र त्रिय और सब लोगों से प्रेम कर पता है | परन्तु जो मनुष्य अपने आप को नेक समझ कर शेखी मारता है वो सच्चा पश्चतापी नहीं है परन्तु परमेश्वर की आत्मा का विरोध करता है | वो स्वार्थी होता है | वह नवीकरण नहीं चाहता, ना यह जानता है कि उसे मुक्तीदाता की आवयश्कता है परन्तु अपने दिल को कठोर बना लेता है | मसीह किसी अपरिचित, गुमनाम देवता के नाम से नहीं आये बल्की अपने पिता के नाम से आये ताकी परमेश्वर के प्रेम और दया को प्रगट करें | वो सब लोग जो मसीह को अस्वीकार करते हैं वो यह सिद्ध करते हैं कि उनकी समझ परमेश्वर के प्रेम के लिये बन्द हो चुकी है क्योंकि वो ज्योती से ज़्यादा अन्धकार से प्रेम करते हैं और इस तरह उन लोगों से घ्रणा करते हैं जो ज़्योती से जन्म लेते हैं |

मसीह ने अपने शत्रुओं को विरोधी मसीह के प्रगट होने की सूचना दी जो सब स्वार्थी और घमंडी लोगों को जमा करके उन्हें परमेश्वर के प्रेम के विरुध विद्रोह करने के लिये उभारेगा | वो आश्चर्यकर्म करेगा और मसीह की तरह अभिनय करेगा |

कई लोग विश्वास ना करेंगे बल्की सच्चाई से पश्चताप करने के बदले एक दूसरे की खुशामद करना पसन्द करते हैं | वो स्वंय को श्रेष्ठ, शक्तिशाली और बुद्धिमान समझते हैं | वे पवित्र परमेश्वर के सामने नहीं काँपते और यह नहीं जानते कि केवल वही श्रेष्ठ है | स्वंय श्रेष्ठता, अविश्वास का कारण है और घमंड इस झूठे स्वभाव का चिन्ह है |

जो कोई परमेश्वर और अपनी आत्मा को जानता है वो टूटे हुए दिल से अपने पापों को स्वीकार करता है | सारी महीमा और सम्मान का त्याग कर हमेशा केवल आस्मानी पिता और पुत्र को महीमा देता है | वो उद्धार करने वाले अनुग्रह की बड़ाई करता है | क्षमा पाये हुए पापी होने का अनुभव हमें अपने आचरण में पाई जाने वाली आत्मा प्रशंसा से स्वतंत्र करता है क्योकि हम जानते हैं की हम कौन हैं और परमेश्वर कौन है ? प्रेम मित्र से सच कहता है परन्तु घमंडी व्यक्ती अपने आप को और दूसरों को धोका देता है और इस प्रकार वो परमेश्वर की आत्मा से अलग हो जाता है जो हमें नम्र बनाती है |

यूहन्ना 5:45–47
“45 यह न समझो कि मैं पिता के सामने तुम पर दोष लगाऊँगा ; तुम पर दोष लगानेवाला तो मूसा है , जिस पर तुम ने भरोसा रखा है | 46 क्योंकि यदि तुम मूसा का विश्वास करते तो मेरा भी विश्वास करते, इसलिये कि उसने मेरे विषय में लिखा है | 47 परन्तु यदि तुम उसकी लिखी हुई बातों पर विश्वास नहीं करते, तो मेरी बातों पर कैसे विश्वास करोगे ?”

यीशु ने व्यवस्था के विदवानों का घमंड उतारने के लिये यह भी कहा कि : “मैं परमेश्वर के सामने तुम पर आरोप ना लगाऊँगा बल्की मूसा स्वंय तुम पर दोष लगायेंगे | उन्होंने तुम्हें नियम की व्यवस्था दी थी जो तुम्हें पापी ठहराती है | तुम प्रेम से खाली हो और व्यवस्था के नाम पर मेरी हत्या करना चाहते हो | परमेश्वर से अलग हो कर तुम अन्धकार में भटक रहे हो | मैं ने एक मनुष्य को सब्बत के दिन चंगा किया और तुम परमेश्वर के इस काम से अप्रसन्न हुए बल्की तुम मुझ से घ्रणा करते हो जब की मैं परमेश्वर के प्रेम का अवतार हूँ | तुम यह मानना नहीं चाहते कि ये मसीह के काम हैं | तुम्हारी आत्मा विद्रोही और कठोर है | परमेश्वर ने जीवन पाने के लिये तुम्हें व्यवस्था दी, मरने के लिये नहीं | अगर तुम पश्चताप करते तो उद्धारकर्ता की अपेक्षा करते | व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं के वचन आने वाले का केवल आरंभिक वक्तव्य हैं | तुम ने व्यवस्था को तोड़ मरोड़ कर अपनी इच्छा के अनुसार परमेश्वर की आज्ञाओं का मतलब निकाला | तुम भविष्यवाणी को समझ नहीं सकते | तुम्हारी दुष्ट आत्मायें तुम्हें सच्चाई जानने से रोकती हैं इस लिये तुम परमेश्वर की आत्मा का विरोध करते हुए अज्ञानी और बहरे बने रहोगे | तुम अपने हठ के कारण जीवन के वचन पर विश्वास नहीं करते |

प्रश्न:

43. मसीह ने अपने लिये महीमा क्यों स्वीकार नहीं नहीं की, जैसा दूसरे करते हैं ?

प्रश्नावली - भाग 2

प्रिय पढ़ने वाले भाई,
अगर तुम हमें इन 24 में से 20 प्रश्नों के सही उत्तर लिख कर भेजोगे तो हम तुम्हें इस अध्ययन माला का अगला भाग भेज देंगे |

25. यीशु मन्दिर में क्यों गये और व्यापारियों को बाहर क्यों निकाल दिया ?
26. निकुदेमुस की भक्ती और यीशु के उद्देश में क्या फर्क है?
27. विश्वासियों में नये जन्म के क्या चिन्ह दिखाई देते हैं?
28. मसीह और जंगल के साँप में किया समानता है?
29. मसीह पर विश्वास करने वालों पर सज़ा की आज्ञा क्यों नहीं होगी?
30. मसीह को दूल्हा क्यों कहा गया?
31. हम अनन्त जीवन किस तरह प्राप्त कर सकते हैं?
32. यीशु हमें कौनसा उपहार प्रदान करते हैं? इस की विशेषताएं क्या हैं?
33. सच्ची आराधना में बाधा कैसे आती है? सच्ची आराधना कैसे की जाती है?
34. हम जीवन के पानी से कैसे सिंचित हो सकते हैं?
35. हम किस तरह यीशु के लिये उपयोगी फसल काटने वाले बन सकते हैं?
36. अपने विश्वास की उन्नती के लिये उस अफसर को किस किस अवस्था को पार रना पड़ा?
37. यीशु ने बैतहसदा के कुण्ड के पास उस अपाहिज़ को किस तरह स्वस्थ किया?
38. यहूदी यीशु को क्यों सताने लगे?
39. परमेश्वर अपने पुत्र के साथ किस प्रकार और क्यों काम करता है?
40. वो कौन से दो मुख्य काम हैं जो पिता ने मसीह को पूरा करने के लिये दिये हैं ?
41. यीशु के स्पष्टीकरण के अनुसार पिता और पुत्र में कैसा संबंध है?
42. वो चार गवाह कौन हैं और वो किस के विषय में गवाही दे रहे हैं ?
43. मसीह ने अपने लिये महीमा क्यों स्वीकार नहीं नहीं की, जैसा दूसरे करते हैं?

अपना नाम और पता साफ़ अक्षरों में लिख कर अपने उत्तरों के साथ इस पते पर भेजिये |

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