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रोमियो - परमेश्वर के वचन को न केवल सुननेवाले, परन्तु उस अनुसार कार्य करने वाले बनो|
याकूब की पत्री का अध्ययन (डॉक्टर रिचर्ड थॉमस द्वारा)
अध्याय II
विश्वास एवं कार्य (याकूब 2:14-26)
याकूब 2:14-26
14 हे मेरे भाइयों, यदि कोई कहे कि मुझे विश्वास है पर वह कर्म न करता हो, तो उस से क्या लाभ ? क्या ऐसा विश्वास कभी उसका उध्दार कर सकता है ? 15 यदि कोई भाई या बहिन नगें उघाड़े हों, और उन्हें प्रति दिन भोजन की घटी हो | 16 और तुम में से कोई उन से कहे, कुशल से जाओ, तुम गरम रहो और तृप्त रहो; पर जो वस्तुएं देह के लिए आवश्यक हैं वह उन्हें न दें तो क्या लाभ ? 17 वैसे ही विश्वास भी, यदि कर्म सहित न हो तो अपने स्वभाव में मरा हुआ है | 18 वरन कोई कह सकता है कि तुझे विश्वास है, और मैं कर्म करता हूँ: तू अपना विश्वास मुझे कर्म बिना तो दिखा; और मैं अपना विश्वास अपने कर्मों के द्वारा तुझे दिखाऊंगा | 19 तुझे विश्वास है कि एक ही परमेश्वर है: तू अच्छा करता है: दुष्टात्मा भी विश्वास रखते ,और थरथराते हैं | 20 पर हे निकम्मे मनुष्य क्या तू यह भी नहीं जानता,कि कर्म बिना विश्वास व्यर्थ है ? 21 जब हमारे पिता इब्राहीम ने अपने पुत्र इसहाक को वेदी पर चढाया, तो क्या वह कर्मों से धार्मिक न ठहरा था ? 22 सो तू ने देख लिया कि विश्वास ने उस के कामों के साथ मिल कर प्रभाव डाला है और कर्मों से विश्वास सिध्द हुआ | 23 और पवित्र शास्त्र का यह वचन पूरा हुआ, कि इब्राहीम ने परमेश्वर की प्रतीति की, और यह उसके लिए धर्म गिना गया, और वह परमेश्वर का मित्र कहलाया | 24 सो तुम ने देख लिया कि मनुष्य केवल विश्वास से ही नहीं , वरन कर्मों से भी धर्मी ठहरता है | 25 वैसे ही राहाब वेश्या भी जब उस ने दूतों को अपने घर में उतारा, और दूसरे मार्ग से विदा किया, तो क्या कर्मों से धार्मिक न ठहरी ? 26 निदान, जैसे देह आत्मा बिना मरी हुई है वैसा ही विश्वास भी कर्म बिना मरा हुआ है||
इस संदर्भ में जो लेखांश अब लिया जायेगा स्फटिक की भांति साफ है | इसके हिस्सों को जब पौलुस के विश्वास द्वारा न्यायीकरण के साथ रखा जाता है, यह सैद्धांतिक रूप से हतप्रभ करने वाले बन जाते हैं ( रोमियों 1:17,4:22,5:1,इफिसियों 2:8)| इसकी शर्तों में क्या है हम उसे मानने के स्थान पर कुछ विशेष प्रतिवाद या सहारे,इसकी कठिनाईयों पर लांछन लगाने के लिए खोजते हैं | आईये हम कुछ और कटाक्ष करने वाले प्रश्नों या प्रस्तावों को इस अध्याय 2 के आधे भाग में ही,कुछ और अधिक स्पष्ट कथनों को हस्तक्षेप किये बिना अलग कर लेते हैं :
क्या विश्वास उन्हें बचा सकता है ?(14)
विश्वास बिना कार्यों के अकेला मर जाता है (17)
मैं उन्हें अपना विश्वास अपने कार्यों द्वारा दिखाऊँगा (18)
क्या हमारे पिता ईब्राहिम का कार्यों द्वारा न्यायीकरण नहीं किया गया था (21)
कार्यों के द्वारा एक आदमी का न्यायीकरण होता है ....औरत का भी (राहाब )(24,25)
पतरस ने अपनी दूसरी पत्री के बारे में लिखा है कि उसमें कितनी बातें ऐसी हैं, जिनका समझना कठिन है, और अनपढ़ व अस्थिर लोग उन के अर्थों को भी खींचतान कर अपने ही नाश का कारण बनाते हैं (2 पतरस 3:16)| विश्वास द्वारा न्यायीकरण का सिध्दांत,इन अज्ञानी वाद विवादियों के मनों एवं मुँह को स्वंय ऐसे संघर्षों व घुमावों की ओर अग्रसर करता है | वे प्रत्यक्ष रूप से विधिवत कल्पनाओं द्वारा आवेशपूर्णरूप से तर्क करते होंगे: “विश्वास होना ही सब कुछ है”; “एक बार विश्वास करो और तुम हमेशा के लिए सुरक्षित हो”; “उध्दार के लिए कार्य कुछ भी निवेश नहीं करते” |
सामान्यत: विश्वास की परिभाषा असंतोषजनक या पुनरुक्त है | यहाँ एक उदाहरण है, “किसी वस्तु पर भरोसा,या किसी व्यक्ति पर भरोसा, विश्वास है” | यह हमें बहुत दूर लेकर नहीं जाता, वैकल्पिक रूप से हम “केवल सहमती” से “विश्वास” का विभेद करना शुरू करते हैं | दोनों भरोसे के प्रकार हैं | दोनों किस्म की मान्यता के बीच के अंतर को प्राय: पूर्वसर्ग “में” द्वारा दर्शाया जाता है | परमेश्वर का पृथ्वी पर आगमन पर विश्वास करना केवल सहमती है | हम सभी प्रकार के तथ्यों पर विश्वास करते हैं, कि अफ्रीका यूरोप की अपेक्षा बड़ा है, कि उज्बेकिस्तान के एक प्रधानमंत्री हैडन 18 वी सदी में रहते थे | ऐसे सत्य हमें विचलित नहीं करते या किसी प्रकार की क्रिया करने की ओर हमें नहीं उकसाते हैं | दूसरी ओर मसीह में भरोसा करना या साम्यवाद में जोकि एक प्रचंड दोष सिध्दी , या अनुभव का एक और अधिक ऊचा स्तर है | एक डाक्टर के लिए एक चमत्कार से चंगाई पर विश्वास करना उसके सफल पेशे को दांव पर लगाने के लिए पर्याप्त है |
“मैं नहीं सोचता कि मसीह में विश्वास किसी रहस्यमयी शक्ति का अभ्यास है जोकि अविश्वासियों के पास बिलकुल नहीं है |” जब हम बच्चों के समान विश्वास करने की बात करते हैं हम कल्पना करते हैं कि कहीं भी बच्चों में विश्वास करने का एक गुण होता है जिसकी सिफारिश मसीह ने की थी | जब यिर्मयाह चिल्लाकर रोता ह : “यहोवा यों कहता है, श्रापित है वह पुरुष जो मनुष्य पर भरोसा रखता है ...... धन्य है वह पुरुष जो यहोवा पर भरोसा रखता है”, हम यह मानते है की दोनों ही वाक्यों में क्रिया “भरोसा” का अर्थ कम-या-अधिक, समान ही है (यिर्मयाह 17:5,7) | ईसाई विश्वास और अन्य किसी विश्वास में वास्तविक भेद उस वस्तु या पात्र में है जिस ओर विश्वास निर्देशित है ---यीशु मसीह हमेशा वही हैं, जो वादे करते हैं और उन्हें पूरा करते हैं, जो कभी असफल नहीं हैं |
एक जीवंत विश्वास का एक स्थिर क्रम होता है जो हमें सही मार्ग पर रखता है और वह विश्वास देता है जो हमें जीवन की यात्रा में चलने की हिम्मत देता है | विश्वास के पास स्पष्टता व निश्चितता की कई इकाईयां हैं | अधिकतर विश्वासी ( ऐसा प्रतीत होता है )दयनीय रूप से विश्वास में कम होते हैं (लूका 17:6), फिर भी परमेश्वर उनके उस अल्प विश्वास जिसके वे अभ्यस्त हैं, को स्वीकार करते हैं |
संक्षिप्त में, पूरे नये नियम में विश्वास किस पर खड़ा है ? सारांश यह है कि परमेश्वर पर विश्वास अनिवार्य है | अपनी चंगाई की शक्ति में यीशु अयहूदियों के विश्वास की प्रशंसा करते हैं, अपने शिष्यों के अल्प विश्वास के लिए उन्हें फटकारते हैं (मत्ती 15:28;17:17)| जबकि पहले से ही मान लिया हुआ विश्वास यीशु ने उनके शिष्य बनने के लिए शर्त रखी थी जो अत्यधिक आवश्यक व बहुमूल्य थी, तभी तो प्रसिध्द धर्मप्रचारक साधारणतया घोषणा करते हैं “मेरे पीछे चलो”(मरकुस 1:17); “जो कोई मेरे पीछे आना चाहे वह अपने आप से इंकार करे और अपना क्रूस उठाकर, मेरे पीछे हो ले”(मरकुस 8:24); तू अपना सब कुछ बेचकर कंगालों को बाँट दे, और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा, और आकर मेरे पीछे हो ले ( लूका 18:22)| कुछ शिष्यों को यीशु सख्ती से कहते है और “वह सब कुछ छोड़कर उठा, और उनके पीछे हो लिया” (लूका 2:27)|
विश्वास को यूहन्ना वरीयता देते हैं | उनके लिए दृढ़ निष्ठा वास्तव में परमेश्वर को जानने के समान है | “ताकि तुम जान सको कि पिता मुझमें हैं” (यूहन्ना 10:38)| इब्रानियों की पत्री में आश्वस्त और दोषसिध्दी के जैसी दृढ़ निष्ठा की एक बेजोड़ परिभाषा है | (इब्रानियों 11:1)| विश्वास पर आधारित इस अध्याय में संज्ञा, कार्य को दर्शाती हुई क्रिया के साथ है, हाबिल ने दान दिया था, नूह ने बनाया था, ईब्राहिम ने आज्ञा का पालन किया था, मूसा ने इंकार किया था | विद्वानों ने निष्ठा का अर्थ अदायगी खोज निकाला है, जैसा कि याजकीय कार्यों में उपयोग किया जाता है | वह संज्ञा वहां उस सिध्दांत के लिए जो उपदेशक के मत की प्रथम व्याख्या के रूप में दिखाई देता है, जिसे ईसाईयों ने आत्मसात किया हुआ है, के लिए उपयोग में लाया गया है |
नये नियम में विश्वास का एक संतोषजनक विश्लेषण है जिसमें अधिक विस्तृत रूप में प्रमाण दिए है जिन्हें सामने लाना चाहिए, परन्तु पूर्वागामी यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि याकूब ने परिभाषाओं का अच्छा उपयोग किया है जिसमें नये नियम की आधार सामग्री का सूक्ष्म परिक्षण सिमट गया था |
“ यदि एक व्यक्ति कहता है वह विश्वास करता है परन्तु कार्य नहीं करता क्या उसका विश्वास उसे बचा सकता है ?” इस सैध्दांतिक प्रश्न के उत्तर का एक प्रकार यह है कि यह इस बात पर दबाव डालता है, कि ऐसे व्यक्ति का वास्तव में विश्वास नहीं है, परन्तु सिर्फ वह कहता है कि है (14)| यहाँ, यद्यपि यह बात यह कहने के समान है कि न तो उसका विश्वास न वह स्वयम कुछ कार्य करता है – कुछ उसमें जुड़ता नहीं, कुछ उसमें मिलता नहीं, मुश्किल से शून्य ही एक मददगार समीकरण है | जब याकूब उनके अनुमानित विश्वासी का उल्लेख करते हैं उनके दिमाग में ऐसे व्यक्ति की कल्पना होती है जिसके उध्दार के आश्वासन की तुलना, अधिकांश ईसाई लोगों के लिए अनुग्रह के साथ की जा सके, जिनके विश्वास का आधार यीशु एवं परमेश्वर हैं | मैथ्यू हेनरी टिप्पणी करते हैं , “ पौलुस साधारणरूप से अन्य प्रकार के विश्वास के बारे में नहीं कहते हैं, लेकिन अन्य प्रकार के कार्यों के बारे में कहते हैं | पौलुस ने मनुष्य द्वारा विश्वास के सुसमाचार को अपनाने के पहले कार्यों के बारे में कहा है... “जो लोग अपने कार्यों के कारण स्वयम का महत्व बहुत ऊंचा समझते थे इतना कि उन्होंने सुसमाचार को त्याग दिया था | संत याकूब सुसमाचार की आज्ञाकारिता में किये गये कार्यों के बारे में कहते हैं |”
पौलुस ने विश्वास के प्रभावपूर्ण प्रकटीकरण के बारे में क्या लिखा है जिसमें एक वस्तु जो आवश्यक है की कमी है ? “यदि मुझे विश्वास हो तो मैं पहाड़ को भी हटा सकूंगा और यदि मुझमें प्रेम न हो तो मैं कुछ नहीं” (1 कुरिन्थियो 13:2) |प्रेम के बिना विश्वास निरर्थक है; प्रेम अनेक प्रकार के कार्यों द्वारा दर्शाया जाना चाहिए जिसकी सिफारिश याकूब करते हैं |२कुरिन्थियो के अध्याय ५के१०वे वचन में पौलुस हमें स्मरण कराते हैं “क्योंकि अवश्य है, कि हम सबका हाल मसीह के न्याय आसन के सामने खुल जाये, कि हर एक व्यक्ति अपने अपने भले बुरे कामो का बदला जो उसने देह के द्वारा किये हों पाए||” (2 कुरिन्थियो 5:10) | इसके साथ हम १कुरिन्थियो के अध्याय ३के वचन १३,१५ में दी गई उनकी चेतावनी को जोड़ते हैं “तो हर एक का काम प्रगट हो जायेगा; क्योंकि वह दिन उसे बताएगा; इसलिए कि आग के साथ प्रगट होगा: और वह आग हर एक का काम परखेगी कि कैसा है .....और यदि किसी का काम जल जायेगा, तो हानि उठाएगा; पर वह आप बच जायेगा परन्तु जलते जलते||” (1 कुरिन्थियो 3:13,15) | यह सोचने के लिए एक दुखद अंत है कि एक बड़ी संख्या में विश्वासी प्रतीत होने वाले लोगों के प्रयास उस महान हिसाब किताब वाले दिन मृत लकड़ी के समान त्याग दिए जायेंगे |
न्याय की वास्तविकता एवं प्रचंडता की दहला देने वाली चेतावनियाँ अधिकतर हमारे परमेश्वर के मुंह से आती हैं, जैसा कि सी. एस . लुईस ने कहीं पर इसका संकेत दिया था | दो उदाहरण एकदम से दिमाग में आते हैं: “जो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उनमे से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है | उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे; हे प्रभु, हे प्रभु क्या हमने तेरे नाम से भविष्यवाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्ट आत्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत अच्चम्भे के काम नहीं किये? तब मैं उनसे खुलकर कह दूंगा कि मैंने तुमको कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करने वालों, मेरे पास से चले जाओ” (मत्ती 7:21-23)| इसके बाद वापस विचलित कर देनेवाला अध्याय 25के अंत में जब न्यायाधीश भेड़ों को बकरियों से अलग करते हैं, हम उसी प्रकार का न्याय पाते हैं | भेड़बकरी रूपक,बोलचाल की भाषा में गैरजिम्मेदार व गुंडे बदमाश लोगों की एक शालीन लोककथामें ‘अच्छे’ व ‘बुरे’का भेद बताने के लिए साधारणतया उपयोग होता है | हमारे प्रभु का इस नीतिकथा को कहने के पीछे एक अलग उद्देश्य था | (मत्ती 25:31-46)|यह गद्यांश अवश्य ही अंत की एक भविष्यवाणी है | इसमें वह भूलचूक का पाप करनेवालों को व आत्मतुष्ट स्वार्थी लोगों को विनाश की चेतावनी देते हैं,जो भूखों को खाना नहीं खिलाते,अजनबी का स्वागत नहीं करते,बिना कपड़ेवालों को कपड़े नहीं पहनाते,बीमार या कैदियों से नहीं मिलते;और साधारणतया सभी अच्छी बातों से परे रहते हैं |
याकूब इस आनंदमयी उपेक्षा के एक विशेष उदाहरण का उल्लेख करते हैं (15,16), जिसे अमेरिकन राजनीतिज्ञ हितकारी उपेक्षा के समान मानते हैं | क्षमाप्रार्थना विनम्र रूप में की जाती है: “तुम्हारे साथ शांति बनी रहे “, जैसा वे अरबी में कहते हैं; “तुम पर परमेश्वर की आशीष बनी रहे |”इन सभी बातों को कहना और व्यवहारिकता में स्वयम उनकी कुछ भी मदद न करना इतना बुरा व अनुपयोगी है क्योकि यह जरूरतमंद मनुष्य में कड़वाहट घोलकर उसे परमेश्वर की अच्छाई से दूर ले जाता है और कभी कभी वह जीवन से ही निराश हो जाता है |
पौलुस का सुझावी पदबंध गलतियों 5:6, “विश्वास प्रेम द्वारा कार्य करता है” इसका पूरक है | याकूब 2:18 “मैं अपने कार्यों के द्वारा तुम्हे अपना विश्वास दर्शाऊँगा |” प्रेम वस्तुओं को जीवित रखता है; इसके द्वारा विश्वास ऊर्जा प्राप्त करता है जैसा कि हमें पता है कि विश्वास प्रेम का राजा है | विश्वास और कार्य पर दिए गये पूरे लेखांश में प्रेम को इसका आधार मान लिया गया है ,प्रेम जोकि 1:12 में (प्रेममयी परमेश्वर)और 2:8 में (अपने पड़ोसी से प्रेम करना ) पहले सेही है | अत: विश्वास जोकि प्रेम से शक्ति प्राप्त करता है, प्रेममयी कार्यों के प्रभाव में इसका प्रदर्शन होता है
“तुझे विश्वास है कि एक ही परमेश्वर है: तू अच्छा करता है: दुष्ट आत्मा भी विश्वास रखते , और थरथराते है|”(19)| पवित्र यहूदी या मुस्लिम कहते हैं कि परमेश्वर एक है; उनकी रूढ़िवादिता यह दावा करती है कि वे परमेश्वर की दृष्टी में न्यायोचित हैं | कोई व्यक्ति इसकी विश्वसनीयता पर बहस कर सकता है, जैसाकि कुछ टीकाकारियों ने किया था कि याकूब स्वयं को यहूदी एकेश्वरवाद द्वारा संबोधित करते थे | परन्तु ऐसे कुछ विश्वास ईसाई मत से अलग होते हुए फैलते हैं | शैतान विश्वास करता है कि यीशु कुवांरी मरियम से जन्मे थे,उन्होंने पुंतिउस पिलातुस की निगरानी में वेदना सही थी, मारे गये, गाड़े गये,और तीसरे दिन वे वापस जी उठे थे | यह राक्षस ऐसी कुछ रचनाओं को ऐतिहासिक तथ्यों के साथ जानते हैं और ऐसी दृढ़तापूर्वक कहते हैं जैसे कि प्रारंभ से वे इसके आँखों देखे साक्ष्य हैं | जैसे ही वे उध्दार के इतिहास के परिणाम के सामने आते हैं कांप जाते हैं अत: यह विश्वास अब तक बुरे कार्यों के साथ है|
लोग इस आत्मा पर विश्वास करते हैं और दंड आज्ञा का सामना करते हैं |यूहन्ना 3:16 में क्रिया ‘विश्वास’ परमेश्वर के पुत्र मसीह में निरंतर विश्वास को सम्मिलित करती है | १तितुस २:१५ में पौलुस का वचन इस निष्कर्ष का समर्थन करता है जब हमें एक महिला के बारे में यह कहा गया था “ यदि वह विश्वास, प्रेम और पवित्रता में लगातार बनी रहे वह सुरक्षित बनी रहेगी |” निश्चित रूप से यह पुरुषों के लिए भी है |
“क्या हमारे पिता ईब्राहिम कार्यों द्वारा न्यायोचित नहीं किये गये हैं ?”(21)| याकूब यह विस्मयकारी दावा करते हैं तब वह उत्पति 15:6 के अंतर्विरोधी वचन के बड़े से छल्ले में स्पष्टरूप से चले जाते हैं “और पवित्र शास्त्र का यह वचन पूरा हुआ, कि इब्राहीम ने परमेश्वर की प्रतीति की, और यह उसके लिए धर्म गिना गया, और वह परमेश्वर का मित्र कहलाया|”(वचन 23)| लेकिन ईब्राहिम ने वास्तव में विश्वास करना कब शुरू किया, क्या यह उस समय हुआ जब परमेश्वर ने उन्हें एक महान पुरुस्कार स्पष्टत: एक वारिस देने का वादा किया था? क्या वे उस समय विश्वास नहीं करते थे जब उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा हारान छोड़ कर चले जाने की आज्ञा का पालन किया था (उत्पति 12:4), या जब उन्होंने एक वेदी का निर्माण किया था और उस पर से परमेश्वर के नाम को पुकारा था (उत्पति 12:8)? क्या यह परमेश्वर की शक्ति में अटल विश्वास नहीं था जिसने उन्हें विजय दिलाई और लूत व पांच राजाओं को छुड़ाया था (उत्पति 14)? मेल्किसेदेक ने इस सत्य को स्वीकार किया और परमेश्वर को इस उध्दार के लिए धन्यवाद दिया था | इस सब के ऊपर ईब्राहिम ने यह दिखा दिया था कि वह परमेश्वर पर कितना विश्वास करते थे , जब उन्होंने वेदी पर अपने पुत्र की बली देने का दान दिया था | हिब्रू के लेखक ने लिखा है , “विश्वास से ही इब्राहीम ने, परखे जाने के समय में, इसहाक को बलिदान चढ़ाया, और जिसने प्रतिज्ञाओं को सच माना था|”(इब्रानियों 11:17)| पौलुस और याकूब दोनों द्वारा दिए जाने वाले उस सम्मानीय महत्व को इब्रानियों के यह वचन एक साथ लाते हैं जैसा कि वे दोनों न्यायीकरण को ‘विश्वास द्वारा .....उन्होंने दान दिया था’-एक संतोषजनक संयोग से संबंधित बताते हैं | हमारे प्रभु ने घोषणा की थी कि उसके कार्यों द्वारा ज्ञान का न्याय या दोषमुक्ति होगी(मत्ती 10:19) ईब्राहिम भी अपनी आज्ञापालन व दान के द्वारा दोषमुक्त हो गये थे, और परमेश्वर के सामने न्यायोचित ठहराए गये थे |
हम हमारे कार्यों को हमारे उध्दार के लिए भुगतान के दान के रूप में नहीं दे सकते | मैंने बेरुत में एक बप्तिस्मा देनेवाले याजक द्वारा उनके सन्देश के प्रारंभ में इन पकड़ लेने वाले शब्दों को सुना था, “हम लोग मसीह के कार्यों द्वारा सुरक्षित किये गये थे|” अवश्य ही हम लोग अनुग्रह द्वारा बचाए गये हैं;परमेश्वर को हमें सुरक्षित करने के लिए हमारे विश्वास की भी आवश्यकता नहीं है| यद्यपि हमारे स्वर्गीय पिता उनके इस अवर्णनीय उपहार के लिए हमारे विश्वासपूर्ण और कृतज्ञतापूर्ण व्यवहार से प्रसन्न होते हैं | वह देखना चाहते हैं कि हमारा विश्वास केवल शब्दों में ही न बढ़े परन्तु प्रेम के कार्यों और आशा की दृढ़ता में बढ़े |
अंत में मार्टिन लूथर के शब्द यह हैं ,इस वादे के साथ कि वह अपना डॉक्टरी टोपी(उपाधि) उस व्यक्ति को सौप देंगे जो याकूब व पौलूस के बीच संधि करा पायेगा, वह आगे दिए गये शब्दों के साथ यह टिप्पणी कर पाए थे “ विश्वास एक जीवंत अस्थिर वस्तु है | यह निष्क्रिय नहीं हो सकता है |हम लोग कार्यों द्वारा सुरक्षित नहीं किये गये हैं, परन्तु यदि कार्य न हो तो विश्वास के साथ कुछ असंतोषजनक होना चाहिए |” यदि बहुत अधिक असंतोष होगा तो याकूब जोर देकर कहते हैं, हमारा विश्वास मृत है | इसलिए प्रिय भाइयों, “उसी प्रकार तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके कि वे तुम्हारे भले कामो को देख कर तुम्हारे पिता की, जो स्वर्ग में है, बडाई करें| ”(मत्ती 5:16)