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रोमियो – प्रभु हमारी धार्मिकता है|
पवित्र शास्त्र में लिखित रोमियों के नाम पौलुस प्रेरित की पत्री पर आधारित पाठ्यक्रम
भाग 2 - परमेश्वर की धार्मिकता याकूब की संतानों उनके अपने लोगों की कठोरता के बावजूद निश्चल है। (रोमियो 9:1 - 11:36)
4. परमेश्वर की धार्मिकता केवल विश्वास के द्वारा प्राप्त होती है, ना कि नियमों का पालन करने के द्वारा (रोमियो 9:30 - 10:21)

द) क्या इस्राएल उनके अविश्वास के लिए जिम्मेदार है? (रोमियो 10:16-21)


रोमियो 10:16-21
16 परन्‍तु सब ने उस सुसमाचार पर कान न लगाया: यशायाह कहता है, कि हे प्रभु, किस ने हमारे समाचार की प्रतीति की है 17 सो विश्वास सुनने से, और सुनना मसीह के वचन से होता है। 18 परन्‍तु मैं कहता हूं, क्‍या उन्‍होंने नहीं सुना सुना तो सही क्‍योंकि लिखा है कि उन के स्‍वर सारी पृय्‍वी पर, और उन के वचन जगत की छोर तक पहुंच गए हैं। 19 फिर मैं कहता हूं। क्‍या इस्‍त्राएली नहीं जानते थे पहिले तो मूसा कहता है, कि मैं उन के द्वारा जो जाति नहीं, तुम्हारे मन में जलन उपजाऊँगा, मैं एक मूढ़ जाति के द्वारा तुम्हें रिस दिलाऊँगा । 20 फिर यशायाह बड़े हियाव के साय कहता है, कि जो मुझे नहीं ढूंढ़ते थे, उन्‍होंने मुझे पा लिया: और जो मुझे पूछते भी न थे, उन पर मैं प्रगट हो गया। 21 परन्‍तु इस्‍त्राएल के विषय में वह यह कहता है कि मैं सारे दिन आपके हाथ एक आज्ञा न माननेवाली और विवाद करनेवाली प्रजा की ओर पसारे रहा।।

पौलुस ने रोम की कलीसिया को अपने निर्णायक कथन के साथ इस बात की गवाही दी थी कि अधिकांश यहूदी जो मसीह के इंतजार में थे न तो वे मसीह को पहचानते थे, ना ही, विजय का शुभ संदेश उनमे था, परन्तु हमेशा उन्होंने परमेश्वर के वचन का विरोध किया था| उपदेशक यशायाह के समय में यह बात स्पष्ट हुई थी, 2700 वर्ष पहले जब वे अपने लोगो के लिए दुःख और पीडाओं में डूब कर प्रार्थनाएं करते थे, यह कहकर: “कौन हमारे विवरण पर विश्वास करता है?” (यशायाह 53:1)

अनेक यहूदियों ने सुसमाचार सुना था| परन्तु वे न तो इसे समझ सके ना इस पर विश्वास कर सके| उनमे से कुछ ने अनुग्रह जो उनको दिया गया था, का अनुभव भी किया परन्तु वे इसे मानने की इच्छा नहीं रखते थे| अपने रक्षक प्रभु को प्रेम करने की अपेक्षा वे अपने अवज्ञाकारी वातावरण और कठोर राज्य को प्रेम करते थे, और उन्हें दयावान सृष्टिकर्ता से डरना चाहिए था परन्तु वे उनसे अधिक लोगों से डरते थे|

पौलुस ने अपने पूर्व भाषण के सारांश के साथ इस घुमावदार स्थिति का उत्तर दिया था कि विश्वास प्रचार के द्वारा आता है| यहाँ यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि सुसमाचार तुम तक कैसे पहुंचना है, चाहे यह एक भक्ति संगीत द्वारा या पवित्रशास्त्र के कुछ वचन द्वारा परन्तु यह महत्वपूर्ण है कि जब परमेश्वर तुम्हारे हृदय के द्वार पर दस्तक देते है तब तुम तुरंत उनके लिए अपने हृदय के द्वार को खोलते हो जैसे तुम्हे इस बात का डर हो कि कहीं वे तुम्हारे पास से चले न जाये| जो लोग दूसरों के लिए सुसमाचार लाते है, उन्हें एक दम ऊंचे स्तर पर, भव्य ढंग से नहीं लाना चाहिए जो कि सर्वसाधारण लोगों को समझ ही ना आये बल्कि साधारण शब्दों में लाना चाहिए जो सुनने वाले समझ सके| परमेश्वर का वचन सुनने वाले जिस भाषा से परिचित हो, वक्ता ने उसी भाषा में वचन लाना चाहिए, उसने इसके विषय वस्तु को अधूरा नहीं, पूर्ण रूप से लाना चाहिए| प्रत्येक वक्ताने अपने आप को इस बात का अभ्यस्त करलेना चाहिए कि अपने भाषण में व्यवहारिक उदाहरण दे और वे जो कहे वह बहुत मित्रतापूर्वक एवं व्यक्तिगत ढंग से कहें| परमेश्वर की इच्छा और वचन के प्रसार के साथ प्रार्थना करना चाहिए और वक्ता प्रार्थना में जो भी कहता है उसका स्वयं का उस पर विश्वास होना चाहिए उसने परमेश्वर की प्रशंसा और परमेश्वर को धन्यवाद देते हुए अपनी साक्षी देना चाहिए|

प्रचार एक सैद्धांतिक शिक्षण नहीं है, यह परमेश्वर का बुलावा है, उनके लिए जिन्हें उनके द्वारा शक्ति मिली है और यह उनके आदेश एव कार्य में पाया जाता है| इसीलिए परमेश्वर में हमारा विश्वास, सुसमाचार में हमारे विश्वास से बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि परमेश्वर ने अपना वचन हमें उन लोगों को बुलाने के लिए दिया है, जो इसे सुनेंगे, इन सुननेवालों को हम इसके द्वारा सचेत कर सकते है, उनको निर्देश दे सकते है, बुला सकते है, उनको उत्साहित कर सकते है एवं उनको झिंझोड सकते है| मसीह के स्थान पर किसी वक्ता ने बात नहीं करनी चाहिए, बल्कि उनके एक ईमानदार राजदूत बन कर कहना चाहिए, जैसे उपदेशक पौलुस ने कहा था “तो अब, हम मसीह के राजदूत है जैसे परमेश्वर हमारे द्वारा दलील देते है हम मसीह के प्रतिनिधि के रूप में तुमसे विनती करते है परमेश्वर से संधि में बने रहो” (2 कुरिन्थियों 5:20)

पौलुस आश्चर्य करते है: हो सकता है अनेक यहूदियों ने मसीह के उद्धार के बारे में न सुना हो, हो सकता है किसी ने भी उनको एक मात्र रक्षक के बारे में न बताया हो| उपदेशक के इस प्रश्न का उत्तर हमें भजन संहिता 19:5 में मिलता है परमेश्वर का वचन धार्मिकता के सूर्य के समान है| यह स्वर्ग के एक सिरे से उगता है और दूसरे सिरे तक चक्कर लगाता है और इसकी चमक से कुछ छिपा नहीं रह सकता| ठीक जैसे सूर्य जगत को रौशनी देता है, सुसमाचार भी जगत को रौशनी देता है| जब मसीह आये बहुत से लोगों ने उनके चमत्कार देखे और उनके वचनों को सुना| आज हम कहतें है कि जो सुनना चाहते है सुन सकते है, और जो ढूंढेगा, वह पायेगा| रेडियो और टेलिविजन के कार्यक्रम उनको जो सुसमाचार सुनना चाहते है, मदद करते है|

आज मनुष्य आश्चर्यचकित है: मुझे क्या चुनना चाहिये: पैसा, या आत्मा? पैसा या ईश्वर? क्या मै इज्जत, शक्ति, यौनक्रियाकलाप, और मनोरंजन को ढूंढता हूँ? या मै परमेश्वर के वचन को सुनना और उसका पालन करना चाहता हूँ? हमेशा से लोग जीवन में अपनी आत्म संतुष्टि को महत्व देते है, तब फिर कौन अपने सृष्टिकर्ता को सुनना और उनकी सेवा करना चाहता है? पौलुस इस बात को जानना चाहते थे: हो सकता है कि याकूब के उत्तराधिकारी बात को नहीं समझ सके थे जो उनसे कही गई थी! हो सकता है कि सुसमाचार पूर्णरूप से उन तक न पहुंचा हो! परन्तु परमेश्वर पहले से ही मूसा के द्वारा इस का उत्तर दे चुके थे जब उन्होंने कहा था: “उन्हों ने ऐसी वस्तु मानकर जो ईश्वर नहीं है, मुझ में जलन उत्पन्न की, और अपनी व्यर्थ वस्तुओं के द्वारा मुझे रिस दिलाई| इसलिए मै भी उनके द्वारा जो मेरी प्रजा नहीं है उनके मन में जलन उत्पन्न करूँगा; और एक मूढ़ जाती के द्वारा उन्हें रिस दिलाऊंगा|” (व्यवस्थाविवरण 32:21)

मूसा को कहे गये अपने कथन में परमेश्वर लोगों से यह कहना चाहते थे: “क्योंकि तुम लोग मेरा वचन सुनने के लिए तैयार नहीं हो, मै स्वयं अपने आपको प्रकट करूँगा और मै अपना प्रेम बिना चुने हुए और अशिक्षित लोगों को दूँगा| मै तुम्हे क्रोध एवं ईर्ष्या से भर दूँगा जब तुम देखोगे कि कैसे तुम्हारे स्थान पर एक बिना चुने राज्य को मेरा पक्ष मिला है, जो कि घमंडी और अहंकारी है| मै उनको मुझसे प्रेम करने और मेरा आदर करने के लिए उनका मार्गदर्शन करूँगा|”

मसीह के आने के 600 वर्ष पहले परमेश्वर ने अपने उपदेशक यशायाह को यह दृढतापूर्वक कहा था कि: “मै उनके द्वारा ढूंढा गया जो मेरे बारे में नहीं जानते; मै उनको मिला जिन्होंने मुझे नहीं खोजा” (यशायाह 65:1; रोमियो 9:30)| आजकल, हम देखते है कि परमेश्वर अविश्वासियों का विरोध उनके तरीकों से करते है कि वे उनके अस्तित्व को पहचान पाये| वह लोग जो परमेश्वर को महत्व नहीं देते उनसे परमेश्वर सपनों, घटनओं और बिमारियों द्वारा बात करते है| आज के इस वैज्ञानिक जगत में, जहाँ बहुत से वैज्ञानिक यह मान चुके है कि सृष्टि का विकास केवल सृष्टिकर्ता की उपस्थिति द्वारा है, वंही उसी समय परमेश्वर के अपने लोग उनसे दूर चले जा रहे है| अनजान लोगों को अपने लोग बनाने के परमेश्वर के पास हजारों उपाय है| यह सत्य ही वह रहस्य था जिसका अनुभव पौलुस ने दोनों प्रकार से दुखपूर्वक एवं हर्षपूर्वक उनकी धर्मप्रचारक यात्राओं के दौरान किया था (प्रेरित के कामों का वर्णन 28:24-31)

परमेश्वर ने यशायाह को यह भी कहा था: “पूरे दिन में अपने हाथों को उन विद्रोही लोगों के लिए फैलाता हूँ, जो अपने स्वय के विचारों के अनुसार, उस पथ पर चल रहे है जो अच्छा नहीं है, ऐसे लोग जो मेरे सामने मुझे लगातार क्रोध करने के लिए उत्तेजित करते है (यशायाह 65:2-3)| उनकी इस घोषणा द्वारा, परमेश्वर हमें यह कहना चाहते है कि वे अपने हाथ अपने अवज्ञाकारी लोगों के लिए फैलाते है, जैसे एक माँ अपने बच्चे को विनाश में गिरने से बचाने के लिए फैलाती है| अतः परमेश्वर उनके अपने लोगों को बचाना चाहते थे, परन्तु उन्होंने अनुभव किया था कि वे उनको सुनना ही नहीं चाहते थे| वे अपनी इच्छापुर्वक उनकी आज्ञा का उल्लंघन करते थे, और विद्वेषपूर्वक विद्रोह करते थे|

परमेश्वर का प्रेम कितना महान है जो उन लोगों को त्याग नहीं देते जिन्होने उनको छोड़ दिया है और उनसे अलग, उनके विद्रोह में हठ पूर्वक रहते है| इसके स्थान पर वे हमेशा उनको अपना प्रेम देते है| अंत में, यद्यपि न्यायाधीश अपने अधिकांश चुने हुए लोगों के विरोध में न्याय देंगे| वे अपनी इच्छापूर्वक उनकी आज्ञा का उल्लंघन करते है और नहीं चाहते कि उनके द्वारा बचाये जाये| वे उस अंधे इन्सान के समान है जिसे सचेत किये जाने पर भी कि आगे खड्डा है वह अपनी इच्छा से ठोकर खाता है और गिरता है|अतः परमेश्वर ने इस्राएल को साफ साफ कहा था कि स्वय वे ही अपनी इस बुरी स्थिति के लिए जिम्मेदार है बजाय इसके कि वे उनका प्रेम पाते|

प्रार्थना: ओ यीशु मसीह के पिता, आप हमारे पिता है जो अपने हाथो को हमारे लिए फैलाते है, जैसे माता अपने हाथों को अपने बालक के लिए फैलाती है कि उसका बालक गिरने न पाये| हम आपकी आराधना करते है आपके प्रेम के लिए और आपसे प्रार्थना करते है कि याकूब की संतानों के कानों को खोलिये ताकि वे यीशु के वचन को सुन पाये, और आनंद एव धन्यवाद पूर्वक इसका पालन करे|

प्रश्न:

69. कैसे आज प्रत्येक व्यक्ति यदि वह चाहता है तो सुसमाचार को सुन, समझ और स्वीकार कर सकता है?
70. कैसे परमेश्वर ने पूरे राज्यों में से नवीकरण किये हुए व्यक्तियों को अपने चुने हुए लोग बनाया था?

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