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रोमियो - परमेश्वर के वचन को न केवल सुननेवाले, परन्तु उस अनुसार कार्य करने वाले बनो|
याकूब की पत्री का अध्ययन (डॉक्टर रिचर्ड थॉमस द्वारा)

अध्याय IV

Worldliness and Godliness (याकूब 4:1-10)


याकूब 4:1-10
1 तुममें लड़ाईयां और झगड़े कहाँ से आ गए ? क्या उन सुख-विलासों से नहीं जो तुम्हारे अंगों में लड़ते- भिड़ते हैं ? 2 तुम लालसा रखते हो, और तुम्हे मिलता नहीं ; तुम हत्या और डाह करते हो, और कुछ प्राप्त नहीं कर सकते; तुम झगड़ते और लड़ते हो; तुम्हे इसलिए नहीं मिलता, कि मांगते नहीं | 3 तुम मांगते हो और पाते नहीं, इसलिए कि बुरी इच्छा से मांगते हो, ताकि अपने भोग विलास में उड़ादो |4 हे व्यभिचारिणीयों,क्या तुम नही जानती,कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है ? सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है | 5 क्या तुम यह समझते हो, कि पवित्र शास्त्र व्यर्थ कहता है? जिस आत्मा को उस ने हमारे भीतर बसाया है, क्या वह ऐसी लालसा करता है, जिस का प्रतिफल डाह हो ? 6 वह तो और भी अनुग्रह देता है;इस कारण यह लिखा है, कि परमेश्वर अभिमानियों से विरोध करता है, पर दीनों पर अनुग्रह करता है | 7 इसलिए परमेश्वर के आधीन हो जाओ; और शैतान का सामना करो, तो वह तुम्हारे पास से भाग निकलेगा | 8 परमेश्वर के निकट आओ, तो वह भी तुम्हारे निकट आएगा: हे पापियों, अपने हाथ शुद्ध करो; और हे दुचित्ते लोगों अपने हृदय को पवित्र करो | 9 दुखी होओ, और शोक करो, और रोओं: तुम्हारी हंसी शोक से और तुम्हारा आनन्द उदासी से बदल जाए | 10 प्रभु के सामने दीन बनो, तो वह तुम्हे शिरोमणि बनाएगा |

युध्द और शांति का बारहमासी पारस्परिक सबंध है यह एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं | संसार में अभी भी कहीं कोई युध्द चल रहा है और शांति स्थापित करने के प्रयत्न चल रहे हैं ( मत्ती 24:6) या शांति का कुछ मार्ग दिखाई देगा और युध्द के खतरे होंगे | महिलाएं शांति चाहेंगी और पुरुष युध्द की तैयारी करेंगे | शांति के विषय से ( 3:18),याकूब युध्द की ओर मुड़ जाते हैं (4:1) -एक नागरीय युध्द एक आंतरिक युध्द,बाहरी युध्दों की अपेक्षा अत्यधिक भयंकर और एक ही बार में अत्यधिक थका देने वाला होता है | हम झगड़े की जड़ कहाँ ढूंढे? उत्तर स्पष्टत: यही है :”गलती, प्रिय भाइयों हमारी किस्मत में नहीं परन्तु स्वयम हममें होती है क्योकि हम उसके अधीनस्त कर्मचारी हैं |”

प्रश्नों का खुलकर उपयोग करना हमारे उपदेशक की शैली की एक और विशिष्टता है ( लगभग 22 बार ) | इनमें से कुछ प्रश्न स्पष्टरूप से वाक्पटुता के हैं; अन्य की रुपरेखा ऐसी बनाई गई है जो उनके पाठकों द्वारा खोजी गई थी कि वे स्वयम के बारे में स्वयम क्या जानते हैं| याकूब जो कहते हैं उस बारे में उनमें आपस में ही नहीं परन्तु प्रत्येक में आपस में भी मतभेद थे| समूह में आपसी झगड़ों और वैमनस्यता द्वारा आंतरिक मतभेद अत्यधिक बुरे रूप में थे – जिनका असर पूरी तरह से युध्द के असर के समान था |जो शब्द समूह उपयोग किया गया है वह हिंसा पर जोर देता है : युध्द के लिए शब्द विद्रोह हमें खंडन मंडन देता है झगड़ों के लिए “मचाई” शब्द ग्रीक भाषा का शब्द है जो तलवार से सम्बन्धित है जबकि यह क्रिया जब इसकी जड़से आती है जो कि सेना की योजना अवधि का सोता है | कुल मिला कर इस लेखांश में प्रभावों के एक आध्यात्मिक युध्दो के तरीकों की प्रबलता दर्शाई जा रही है, जोकि नीचे से देखने पर भोग विलास दिखाई देती है |

मानवीय हृदय अपनी धोखेबाजी व कपटी बौखलाई हुई प्रकृति में एक संघर्ष को जन्म देता है (यिर्मयाह १७: ९)| हमारे प्रभु जो नियमों में सिखाये गये सत्यों को पूरा करने आये थे व उपदेशकों ने भ्रष्टाचार के विस्तारित रूपों का अधिक विशेष रूप से जो विवरण दिया है | ”क्योकि भीतर से अर्थात मनुष्य के मन से, बुरी बुरी चिंता व्यभिचार | चोरी,हत्या,परस्त्रीगमन, लोभ, दुष्टता, छल, लुचपन, कुदृष्टि, निंदा, अभिमान, और मुर्खता निकलती है|” (मरकुस 7 : 21,22) याकूब ने पहले खून और व्यभिचार को कानून का उल्लंघन करनेवाले विशिष्ट बदनाम (प्रसिध्द) अतिक्रमणों में लिया था | यहाँ यह दोनों अपराध प्राक्क्ल्पित खंडन के समान नहीं दोहराए गये हैं परन्तु आत्मनिष्ठ या वस्तुनिष्ठ वास्तविकताओं जैसे हैं जिस से परमेश्वर के सामने मनुष्य के दोष स्थापित होते हैं |

पौलुस किसी अन्य नियम के बारे में कहते हैं जिसका संचालन किसी एक सदस्य में होता है और जो शरीर व आत्मा के बीच के अंतहीन युध्द का कारण होता है (रोमियों 6:23)| उनके द्वारा ‘कानून’ शब्द का दो प्रकार की भावनाओं के साथ उपयोग (यह पवित्र है, फिर भी हमें इससे मुक्त होने की आवश्यकता है ( रोमियों 6:15; 7:12) याकूब की मानसिकता के साथ अंतर को दर्शाता है | बादवाले भाग में एक परिपक्व नियम है ,मुक्ति का नियम,जो राजसी नियम है (1:25; 2:8)| उन्होंने इस लेखांश में जो वर्णन किया है वह अराजकता,मनुष्य में कामुकता और आनंद खोजनेवाले भावों के साथ फैली अराजकता के बारे में है | आधुनिक मनो विश्लेषण में यह स्थिति प्रतीत होती है | शब्दावली घरेलू बन गई है | यह ‘लीबीदो’ और ‘ईद’ के बारे में कहती है| दूसरा है निनैतिक, ( जिसे न नैतिक, न अनैतिक कहा जा सके |) जो कि पूरी तरह से स्वयं केन्द्रित है और आनंद देने वाले सिद्धांत द्वारा चलता है, इसके अनुसार जो पसंद है वही करना और जो तकलीफदायक है वह नहीं करना है |

जब इच्छा पूरी नहीं होती है तब वह हिंसा के रूप में बदल जाती है (वचन 2)| याकूब जब इस पत्री को लिख रहे थे उस समय ज़ालिट्स और अन्य कट्टर यहूदी लोग रोम के विरुध्द आत्मघाती युध्द के लिए तैयार हो रहे थे | एक बहुत बड़ी संख्या में ईसाई लोग भी हिंसाओं के परिणाम से पीड़ित थे | ऐसी कठोर अभिव्यक्तियाँ उन कट्टर अपरिवर्तित यहूदी लोगों के लिए हैं | लेकिन धर्मशास्त्र को एक बड़ा आवेदन दिया जा सकता है | अविश्वासी और विश्वासी दोनों ने उस चेतावनी को जो इन वचनों में अंतर्निहित है को सुनना चाहिए | अमर्यादित इच्छाएँ केवल दूसरे दल को तबाह करके ही संतुष्ट होती हैं | वह जो किसी मूल्यवान वस्तु के लिए पागलों के समान लालायित हैं प्राय: यह इच्छा करता है कि उस वस्तु के धारक को रास्ते से हटा दे | वह लालची व्यक्ति एक धार्मिक दाऊद या एक नास्तिक ‘अहाब’ हो सकता है | हमारे दुर्गुण छापामार धावकों के समान विश्वासघाती रूप से हम पर आक्रमण करते हैं और हमारे जीवन को युध्द के मैदान में बदल देते हैं : इसलिए जो समझता है, कि मैं स्थिर हूँ, वह चौकस रहे,कि कहीं गिर न पड़े |

ठीक जैसे हमारे हृदय से बुरे विचार उत्पन्न होते जाते हैं तो वैसे ही जैसा कि चर्चिल ने युध्द में लड़ने वाले मनुष्यों से कहा था “यह हमारे हृदयों के नियन्त्रण में है कि उन युध्दों पर विजय प्राप्त करें” | एक ईसाई मनुष्य के लिए विजय,प्रार्थना द्वारा परमेश्वर के अनुग्रह के साथ आती है | इस बिंदु पर याकूब प्रार्थना के विषय की ओर बलपूर्वक, इसमें आने वाली बाधाओं की ओर हमारा ध्यान केन्द्रित कराते हुए हमारा परिचय कराते हैं | जब कभी भी किसी भी क्षेत्र में कोई समस्या आती है हम उस क्षेत्र के विशेष जानकार से उनकी सलाह मांगते हैं | याकूब ऐसे मनुष्य हैं जो प्रार्थना के ‘विषय’ को सुनते हैं | उनके घुटने ऊंट के समान सख्त हो चुके थे क्योकि वे घंटों घुटनों पर प्रार्थना करते रहते थे | उन्होंने इस ओर भी संकेत दिया है कि हमें कैसे प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर की कभी असफल न होने वाली दानशीलता का आश्वासन भी दिया था (1:5,6)|

लालचीपन मनुष्य के लोभी दुर्गुण को उसके अंदर से बाहर निकालता है | अपने आप में यह दुर्गुण उस मनुष्य की शारीरिक क्रियाओं के एक भाग के समान एक विशेष कार्य करता है | यह हमें ज्ञान, आनंद उठाने, धन दौलत, ऐसी वस्तुएं जो देखी,सुनी,स्वाद लेने योग्य या छू कर देखने योग्य हों,को ढूंढने की ओर ले जाता है (कुलुस्सियों 2:20-23)| ‘काम वासना’ और ‘इच्छा’ का उसी यूनानी शब्द में अनुवाद किया गया है | बौध्द लोगों के लिए इच्छा या लालसा ही मूल अपराध का प्रतिनिधित्व करती है, और इनका नहीं रहना,सांसारिक बन्धनों से छुटकारे का चरमबिन्दु बनता है | ईसाई लोगों के लिए ऐसा नहीं है, धर्मशास्त्र व्यक्ति को गंभीरतापूर्वक अच्छी बातों की लालच का अनुरोध करता है (1 कुरिन्थियों 12:31)| ऐसी अनगिनत वस्तुएं हैं जिन्हें मनुष्य पाना चाहता है और वह आश्वस्त भी रहता है कि उसने कुछ गलत नहीं किया है | आखिर परमेश्वर ने हमें यह सब वस्तुएं बहुतायत में दी हैं कि हम उनका आनंद लें (1 तिमुथियुस 6:17)| कला और साहित्य का खजाना, मित्रता का आनंद, प्रकृति की सुन्दरता, खेल का आनंद आदि बहुत सी वस्तुएं हैं | आनंद की इन वस्तुओं में हम डूब ना जाएं इसके लिये समय और उस वस्तु को आत्मसात करने की हमारी क्षमता द्वारा रोक लगाई गई है |

फिर भी एक महत्वपूर्ण अर्थ विकार स्थान बदलने के साथ, काम वासना वैध रूप से इच्छा की जगह ले लेती है, जब हम उस वस्तु की जो किसी और की है की लालसा करते हैं या उन बातोंकी इच्छा करते हैं जो परमेश्वर ने अपनी बुध्दिमत्ता से हमारे लिए वर्जित की हैं| यह बात ध्यान देने योग्य है कि सौ सालों पहले भी प्रेम था और कामवासना भी थी लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को इन दोनों के बीच के अंतर का ज्ञान था, अब यहाँ केवल यौन सम्बन्ध हैं | एक स्वीकृत समाज ऐसे अति आवश्यक विभेदीकरण को पूरी तरह नष्ट कर देने का प्रयास करता है ; यह हमेशा परमेश्वर का भय माननेवालों ईसाईयों के लिए मान्य है | यदि हमारी इच्छा के पीछे बुरा कारण है, तो परमेश्वर हमारी विनती का उत्तर नहीं देंगे ; यदि इच्छित वस्तु (इच्छा, मनचाहा का समानार्थी नहीं है) निषेध है, उद्देश्य निश्चित ही गलत होता है, परमेश्वर हमारी भलाई के लिए उस वस्तु को हम से दूर कर देंगे | यहाँ पर यद्यपि भजन संहिता 106:14,15 में बाधक सम्भावना की ओर संकेत किया गया है कि कभी कभी कुछ मूर्खतापूर्ण की गई विनतियाँ भी पूरी हो जाती हैं | इस बात पर ध्यान दें फिर से ‘ अत्यधिक कामुकता’ के बारे में कहा जा रहा है जब हम स्वर्ग में जायेंगे हम परमेश्वर का धन्यवाद करेंगे कि हमारी कुछ मूर्खतापूर्ण की गई प्रार्थनाएँ बिना उत्तर के वैसी ही रह गई |

असंतोषजनक प्रार्थनाएँ इस बात की ओर संकेत करती हैं कि लोग गलत कारणों व गलत उद्देश्यों के लिये प्रार्थना करते हैं | विनती की रूपरेखा ऐसी है जो किसी के अहम को बढ़ाती है और इसे सशक्त सराहना करने वालों के सामने लाती है;या ‘विनती करनेवालों’ को लाभ पहुंचाती है जिससे उस व्यक्ति की स्वयं अपने बारे में एक अच्छी राय रहती है |

कामुकता और व्यभिचार साथ साथ चलते हैं और एक दूसरे को आगे बढाते हैं | अगले वचन (4४) में याकूब,पुराने नियम के एक उपदेशक को गंभीरतापूर्वक प्रदर्शित करते हैं और गलत करनेवालों का व्यभिचारी के रूप में वर्णन करते हैं (उत्तम हस्तलिपियों में पुरुष को ही ‘व्यभिचारी’ के रूप में नहीं गिना गया है | ऐसे एक उपनाम को आलंकारिक रूप से समझा गया था, तब से शब्द ‘कामुकता’ परस्पर विरोधी इच्छाओं को जो हमेशा यौन संबध नहीं हैं (यजेकेह्ल 16:32; मत्ती 12:3) को अपने अंदर समेट लेती हैं |

व्यभिचार इस विस्तृत अर्थ में एक और व्याख्या का अधिकार रखता है, वो है ‘ दुनिया की मित्रता ‘| यूनानी शब्द फिला मित्रता के लिए है जो आकर्षण की सीमा पर खड़ा है | संसार के प्रेमी अनुमानित रूप से सांसारिक अधिकारों जैसे जानवरों पर, खनिज पदार्थों या धन दौलत, उच्च पदों के मिलने के बाद अपना समय काम वासना में व्यतीत करते हैं | याकूब संसार की मित्रता को परमेश्वर के प्रति शत्रुता के बराबर का दर्जा देते हैं | ‘व्यभिचार’ हमें हमारे प्रेम के बहुमूल्य लक्ष्यों से दूर ले जाता है जो कि बहुत ही तुच्छ स्थान्नापन्न वस्तु है |

‘परमेश्वर का एक शत्रु’ पहले सामने आये आलंकारिक प्रश्न में अंतर्निहित दोषसिध्दी को यह पदबंध प्रबलित करता है |यह इब्राहीम, परमेश्वर के मित्र, (२:२३), हमारे कुलपिता के लिए एक चहेता कुरानी शीर्षक और हेब्रोन के लिए एक अरबी नाम, जहाँ उनकी कब्र है, का स्मरण कराता है | यह ऐतिहासिक मित्रता, यहोवा में उनके विश्वास द्वारा अभिव्यक्त होती है, जब वे सोडोम से बाहर आये थे, और अपने पुत्र इसहाक का बलिदान देने के लिए तैयार थे | उनके इन पदचिन्हों पर चलकर हम भी उनके उदाहरण का अनुकरण कर सकते हैं और परमेश्वर के मित्र बने रह सकते हैं (युहन्ना 15:14,15)|

अगला वचन (5) कठिन वचन है | ‘पवित्र शास्त्र व्यर्थ में कहता है |’ पवित्र शास्त्र में इतना कुछ कहाँ कहा गया है? पवित्र शास्त्र में दिन की धार्मिक बाते लिखी हुई थी जिनकी जानकारी याकूब को थी | बाद में कनान के गिरजाघर में स्वीकार किये जाने से कहीं अधिक रूप से, उन्होंने उसे अपना लिया था | इसके विपरीत यहाँ पर पुराने नियम में बहुत सारे लेखांश हैं जो कभी भी नये नियम में नहीं लिखे गये जो कि उचित समय पर कनान के नियम के समान, गिरजाघर द्वारा स्वीकार किये गये थे |

अब आगे, इस वचन का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ वैसा नहीं है जैसा A V प्रस्तुतिकरण सुझाव देते हैं, इससे भी अधिक यदि हम इसे वर्तमान लगातार काल में सोचे , यह बराबर जोर डालता है ‘यह लगातार बुराई की ओर जा रहा है’| पवित्र आत्मा जो हममें निवास करता है, उनके लिए हम पर जलनशील है, ‘या यरूशलेम पवित्र शास्त्र के अनुवाद के अनुसार,’ वे शीघ्रतापूर्वक पवित्र आत्मा को हमारे साथ कर देते हैं और वह हमारे साथ रहता है |’ कुछ प्रस्तुतिकरण ऐसा कहेंगे और जो इस सत्य के साथ वास्तव में सही भी है कि पवित्र आत्मा हमारी ओर से, सही पथ पर चलने में हमारी असफलता के दुख से दुखी होकर मातम मनाता है (रोमियों 4:26; इफिसियों 4:30)|

कल्पना करो कि परमेश्वर उस पवित्र आत्मा, जिसे उन्होंने हमारे साथ रहने के लिए बनाया है, के साथ रहते हैं (5), हम उन लोगों के लिए जिनके साथ पवित्र आत्मा निवास करता है, के लिए और अधिक अनुग्रह की आशा करते हैं (6): अनुग्रह पर अनुग्रह (यूहन्ना 1:16)| आरम्भ से ही विश्वास के द्वारा हमें अनुग्रह देकर, वह उदारतापूर्वक हमें और अधिक योग्य बना देते हैं | पवित्र आत्मा की उपस्थिति के होने से ही सच्चे उपहार भरपूर रूप से उनको मिलते हैं जो अपने हृदयों और हाथों को खोलते हैं | तुम्हारे विश्वास के अनुसार यह तुम पर निर्भर करता है |

एस्द्रस ब के उद्धरण में ‘परमेश्वर’ के लिए ‘ईश्वर’ शब्द का प्रतिस्थापन्न दिया गया है (नीति वचन 3:34) ‘परमेश्वर ‘ शब्द नीति वचन के उस पूरे अध्याय में एक समान रूप से उपयोग में लाया गया था | इब्रानियों की पुस्तक में हमें यह भान होता है कि वे तिरस्कार करनेवालों को बुराभला कहते हैं व तिरस्कार करते हैं, परमेश्वर की उपस्थिति में व्यक्तित्व सुस्पष्ट दिखाई देते हैं और वह व्यक्तित्व अहंकारी होते हैं | पतरस ने भी अपनी पत्री में ठीक यही उध्दरण डाला है (1 पतरस 5:5), घमंड के विरोध में चेतावनी और परमेश्वर के अनुग्रह की अपरिमेय पूर्ति के लिए विनम्रता की शुरुआत को दोहराया गया है |

विनयशीलता के अंतर्गत, परमेश्वर को स्वंय का समर्पण, वचन 7 और 10 के अनुसार अपने आपको इस मार्ग के हवाले कर देना है | यह स्वयं प्रस्तुतिकरण, यह स्वयं समर्पण, अन्य लोगों के साथ किये जाने वाले हमारे व्यवहार द्वारा जांचा जा सकता है | क्या हम अपने आप को नष्ट कर रहे हैं ? क्या मैं दूसरों को स्वयं की अपेक्षा बेहतर मानता हूँ ? (फिलिप्पियों 2:3)| यद्यपि इस्लाम जोकि परमेश्वर के प्रति समर्पण को केन्द्रीय सन्देश प्रमाणित करता है, यहाँ दयनीय रूप से असफल है | क्योकि इसने मानवीयता का अत्यधिक विरोध – घमंड और घृणा को नास्तिकता तक ले जाने की भावनाओं को जन्म दिया है |

दब्बूपन का अर्थ कमजोरी नहीं है | वह लोग जो अपने आप को परमेश्वर को समर्पित कर चुके हैं विनती करते हैं कि हमें शैतान का मुकाबला करने की शक्ति देना जब भी वह हमें प्रलोभन देने का प्रयास करे | ऐसे लगातार मुकाबले हमें मजबूत ईसाई बनाते हैं | परमेश्वर जो गर्व का विरोध करते हैं, वह हमारी आत्माओं को गर्व की ओर ले जाने वाले दुश्मनों से लगातार युध्द करते हैं | पतरस इसी बिंदु पर जोर देते हैं जब वे विरोधी शक्तियों का सामना करने का आग्रह करते हैं जोकि जंगली जानवर के समान दबे पांव हमारे चारों ओर आ जाते हैं (1 पतरस 5:8,9) हम इस विश्वस्त ज्ञान में लगातार सतर्कता के साथ विजय पाएंगे, कि सभी ओर ईसाई लोग पीड़ित होते हैं और मुकाबला करते हैं परन्तु विजय में उनकी पीडाएं विलुप्त हो जाती है (1 पतरस 5:10) | इस सबके अलावा हमारे सामने यीशु मसीह का उदाहरण है, हमारे विश्वास के पथ प्रदर्शक जिन्होंने शैतान का मुकाबला करके और उसे उडा देकर अपने आप को परमेश्वर को समर्पित किया है (मत्ती 4:7,10,11)|

यद्यपि हमने लूकारचित सुसमाचार में पढ़ा था कि शैतान ने यीशु को एक नियत अवधि के बाद उचित अवसोरित समय पर वापस आने के लिए छोड़ा था | हमें शैतान को अपने पास से दूर भगाने के लिए सिर्फ योजनाबध्द रूप से पीछे हट जाना चाहिए | अनुभव के द्वारा हम जानते हैं,उसके लिए सुविधाजनक और हमारे लिए असुविधाजनक समय पर वह हम पर प्रत्याक्रमण करता है | यह बात दिमाग में रखते हुए हमें स्वंय पर नियन्त्रण रखना चाहिए (जैसा कि सुझाया गया है) और लगातार जब भी वह हम पर फिर से आक्रमण करे उसका सामना करना चाहिए |

याकूब द्वारा समय समय पर आदेशात्मक शब्दों का उपयोग किये जाने के संदर्भ में इस पुस्तक की प्रस्तावना में बताया गया है;विशेषतया यह वचन 7-10 तक में है, समर्पण,सामना करना, परमेश्वर के निकट आना, अपने मन को स्वच्छ करना, अपने मन को शुध्द करना , दुखी होना, शोक करना, रोना, अपने आप को विनम्र करना | मसीही प्रचारिक कार्यो में प्राय जानकारी प्राप्त करनेवाले लोगों के लिए ‘आदेशों’ का आरम्भ ही एक मार्गदर्शिका के रूप में प्रदान की जाती है (समर्पण, विश्वास, पापों की स्वीकृति ) | याकूब ने जो सूची समर्पित की है वह पूर्ण और अत्यधिक संतुलित है | दुखी होकर शोक करना, रोना, सच्चे पश्चाताप को दर्शाता है; परमेश्वर को समर्पण करना और उनके निकट जाना इस बात का संकेत करता है कि विश्वास पहले से ही कार्य करता है | सबसे ऊपर यह है कि जो भी व्यक्ति ऐसे कदम उठाता है, मसीह का रक्त उसे स्वच्छ व शुद्ध करता है |

परमेश्वर के निकट आओ, और वह तुम्हारे निकट आयेंगे (8): यह पापियों और विचलित होनेवाले लोगों को सुख पहुँचानेवाले सुंदर शब्द हैं | एक बार हम परमेश्वर के निकट चले जाये, हम इस सशर्त वादे व उसके अनुसार उनकी दया को प्रतिदिन अपने लिये पाएंगे |भजन संहिता का यह वचन हमें सूचित करता है कि परमेश्वर ग्लानियुक्त और टूटे हारे हुए लोगों के निकट हैं (34:18) और उनके भी जो उन्हें पुकारते हैं (145:18)| याकूब ने इसी ओर संकेत किया है और यह आवश्यक बताया है कि यह मनुष्य की जिम्मेदारी है कि वह प्रतीक्षा करने वाले पिता के निकट जाने के लिए उनकी ओर एक कदम आगे बढाए|

यहाँ स्वच्छता का अर्थ ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर के वचन अनुसार यह बाहरी और आंतरिक, हाथों और हृदय की, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से व विस्तृत रूप से होना चाहिए (भजन संहिता 24:4)| जब पादरी वेदी पर जाते हैं या तम्बू में जाते हैं उससे पहले हाथों और पैरों को धोने का, पहले से ही भजन संहिता में और उपदेशकों ने एक गहरा अंदरूनी अर्थ बताया है (भजन संहिता 26:6,यशायाह 1:15,16)| पैर धोने के प्रतीकात्मक कार्य में हमारे प्रभु ने सम्पूर्ण के लिये एक भाग को आलंकारिक रूप से उपयोग किया है और जोर दिया है कि जो अपने आप को उनके द्वारा स्वच्छ करने को ठुकराते हैं वे अपने आप को उनसे अलग करते हैं (यूहन्ना 13:8)| वेस्टकाट ने १यूहन्ना ३:३ पर अपने विचार व्यक्त किये हैं और इस ओर संकेत किया है कि यूनानी( ग्रीक ) लोगों के लिए शुध्द करने का, स्वच्छ करने की अपेक्षा एक अत्यधिक व्यक्तिगत और अंदरूनी संदर्भ है जिसकी तुलना हम हाथ और हृदय से करते हैं |

पीड़ा,शोक का भारीपन स्वयं प्रायश्चित की ओर नहीं ले जाते,परन्तु प्राय: ही उसका साथ देते हैं |हमें बचानेवाला शोक (परमेश्वर भक्ति का शोक) जो कि उध्दार लाता है और उससे पछताना नहीं पड़ता (2 कुरिन्थियों 7:10); यहाँ संसारी शोक भी हैं , जो मृतक ग्लानी उत्पन्न करता है | न्याय करने के बारे में याकूब के विचारों की मानसिकता पहलेवाली है |वह इस भाग के निष्कर्ष में, विनम्रता और परमेश्वर को अपने समर्पण के लिए अपनी विनती को दुबारा दोहराते हुए देते हैं | उनके लिए जो इस पथ का अनुसरण करते हैं, में पूर्णत: भरपूर आश्वस्त के लक्षण दिखाई देते हैं; परमेश्वर उन्हें दुख और पीड़ा के भारीपन से प्रफुल्ल आनंद की ओर उठा लेंगे | यही वादा नये नियम में तीन बार दुबारा किया गया है; अत: हमें इसे ईसाई जीवन के लिए एक सशक्त सिध्दांत के समान अपने अन्तकरण में रख लेना होगा( मत्ती 23:12; लुका 14:11; 1 पतरस 5:6)| हमारी तरक्की सार्वजनिक रूप से हममें आती है, परन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर हमें ऊंचे पहाड़ों तक चील के समान, हमारे आसपास के आंदोलनों के ऊपर उठा लेंगे, और हमारी ताकत को नया कर देंगे |

औगस्तीन उन लोगों को जो इस सिध्दांत को ठुकराते हैं को यह चेतावनी देते हैं कि, “जैसे एक पेड़ को ऊंचाई तक पहुँचने के लिए अपनी जड़ों को जमीन की गहराई तक पहुँचाना पड़ता है वैसे ही जो मनुष्य अपनी आत्मा की जड़ों को विनम्रता तक नहीं पहुंचाता वह उसके गिरने की ऊंचाई को प्राप्त करेगा |”

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