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Previous Lesson -- Next Lesson रोमियो - परमेश्वर के वचन को न केवल सुननेवाले, परन्तु उस अनुसार कार्य करने वाले बनो| अध्याय I सुनना और करना (याकूब 1:19-27)याकूब 1:19-27 इस लेखांश में सबसे महत्वपूर्ण है सुनना व उस अनुसार कार्य करना; दोनों संक्रियाएँ इस बात पर चलती हैं कि ईसाई लोग कैसे होने चाहिए, हम सभी परमेश्वर द्वारा निर्मित हैं और हम ईसाई परमेश्वर के चुने हुए लोगों के भाग्य में त्रुटिहीन होना लिखा है , जैसे वह परिपूर्ण हैं ,हमें भी परिपूर्ण होना चाहिए ( मत्ती 5:48) | परमेश्वर शीघ्र ही क्रोधित नहीं होते, तो उनके बच्चे भी वैसे होना चाहिए (भजन सहिंता 103:8)| इस वचन का अंतिम पदबंध (19) ईफिसियों 4:26 के समान है जहाँ पौलुस शिक्षा देते हैं उनको जिन्होंने अपने पुराने स्वभाव को छोड़ दिया है, सूर्य अस्त होने तक उनका क्रोध न रहे, यह मान लिया है| क्रोध को धीरे से आने दो एंव शीघ्रता से जाने दो अन्यथा यह लाभ नहीं हानि ही पहुंचाएगा| किसी भी स्थिति में परमेश्वर की धर्म परायणता ,व दैवीय न्याय हिसंक साधनों के उपयोग को बढ़ावा नहीं देते हैं (20)| सूडान, युगांडा और उत्तरी कोरिया में उत्तेजनापूर्ण कार्यवाही या अत्याचार के समय, विश्वासियों ने इस कठिन पाठ को सीखना बहुत कठिन पाया है, परन्तु पुरानी बातों के विचार से वे इस सिध्दांत की योग्यता को पहचान पाए| परमेश्वर का नीतिसंगत क्रोध अडिगतापूर्वक सभी बातों का सही निर्णय करता है और गलत को दंड देता है| याकूब लिखतेहैं पुराने स्वभाव के अवशेषों को उतार फेंको, यह शब्द हमें पौलुस की याद दिलाते हैं| जो भी मैला कुचैला द्वेष है वह सब निकालकर फेंक देना चाहिए| ईसाई लोगों ने अवश्य ऐसा करना चाहिए जैसा कि एक ईमानदार माली अपने बगीचे की देखरेख करता है| यह वचन जो आगे के जीवन के लिए मन में बैठा देना चाहिए और जो हमेशा उपलब्ध है और नवीनीकरण व पुनर्स्थापन के लिए आवश्यक है| इस वचन (21) के अगले भाग में याकूब पुनर्जन्म की इस प्रक्रिया जैसे ‘ अपनी आत्माओं को बचाओ ‘के परिणाम का उल्लेख करते हैं| हम बचाए जाने के संदर्भ को एक आगे की क्रिया के रूप में देखेंगे, जबकि प्रभावी क्रिया 2:14, 4:12,5:20| में बार बार घटित होती हैं| सुनना, बोलने की अपेक्षा अच्छा है (19); कार्य करना सदा ही अच्छा है (22)| दो घरों की शिक्षाप्रद कहानी में,यीशु ने आध्यात्मिक स्थिरता की शर्त को प्रस्तुत किया है, उनके वचनों को सुनना और उस अनुसार कार्य करना चट्टान समान अटलता है| याकूब हमारे लिए एक लघुकथा(23३) उसी विषय पर परन्तु अलग लक्षणों के साथ प्रस्तुत करते हैं| कोई भी आईने में अपनी छबी को देखकर उसे स्वंय अपने मस्तिष्क में सुस्पष्ट नहीं रख पाता जैसे प्राय: वह दूसरों के चेहरों को रख पाता है| आईने में आकस्मिक रूप से एक सरसरी नजर पड़ते ही कोई बुदबुदा सकता है, “ ओह आज मैं कितना भयावह दिख रहा हूँ” ‘क्या मैं एक सुंदर लड़का या लडकी नहीं हूँ’, और इसके साथ ही अधिक ध्यान न देते हुए घूम कर दूर चले जाता है| एक छोटे लडके को अपने कठोर चेहरे को धोने का कोई कारण नहीं दिखाई देता है, वह तुरंत ही यह भूल जाता है कि वह कैसा दिखता है और दूर चला जाता है | यहाँ आईने का अर्थ परमेश्वर के वचन हैं (25)| हम सभी आईने के टूटने से परिचित हैं जहाँ पांचे के जितने, जो फर्श पर से कुछ बिखरी वस्तु को उठाने के काम आता है, पतले या फुग्गे के समान फूट जाते हैं| बद्सूरत को सुन्दर दिखने वाले आईने का अविष्कार करने योग्य कोई भी नहीं है| परमेश्वर का वचन हमें हमारी एकदम सही तस्वीर दिखाता है| स्थायी रूप से एक चेहरे में कुछ भी सुधार दिखाई नहीं देता है| परमेश्वर का वचन मुझे मेरा स्वंय का चेहरा दिखा सकता है, और स्वंय मुझे मेरा चेहरा दिखाने में मेरा बचाने वाला मेरा रक्षक, आशीष और स्वरूप बदल देने वाला अनुग्रह दोनों साथ हैं, जितनी देर मैं देखूं, सुनु और जो मैं पाऊं उसी अनुसार कार्य करूं| विभिन्न प्रकार के स्पष्टीकरण परमेश्वर के वचन का वर्णन करने के लिए उपयोग में आते हैं| वह जो बाइबिल को गहरे आदर के साथ, सम्मान के साथ लेते हैं, भजन संहिता के 19 और 119 के साथ जिसमें अनेक पाठ इसे सजाते संवारते हैं, आनंद मनाते हैं, जो हमें कानून, निति वचन, आदेशों, सोना, शहद, दीपक, इन शब्दों के पर्यायवाची व समानार्थी शब्द देते हैं| परमेश्वर का वचन प्रशसंनीय और मनचाही वस्तु के तुलना योग्य हैं| उदाहरण के लिए एक उद्धरण है : “यहोवा की व्यवस्था खरी है, वह प्राण को बहाल कर देती है; यहोवा के नियम विश्वासयोग्य हैं, साधारण लोगों को बुध्दिमान बना देते हैं|” ( भजन संहिता 19:7) | याकूब इसे परिपूर्ण नियम, स्वतंत्रता का नियम कहते हैं| नियम जैसे कि प्रतिबंधित माने जाते हैं, और यह आवाज उठी कि विधि निर्माण कम व स्वतंत्रता अधिक हो| अत:किसी ने बुध्दिमानी पूर्वक घोषणा की थी: “नियमों के बिना स्वतंत्रता नहीं है|” जब मनुष्य जैसा चाहता है वैसा करता है तब अत्यधिक कठिनाईयां आरम्भ होती हैं| साधारणतया स्वतंत्रता चयन के लिए एक सुअवसर है, क्या चुना जाना चाहिए,यह इस विषय में कोई मार्गदर्शन नहीं करता है| स्वतंत्रता का नियम यह मार्गदर्शन देता है, और स्वतंत्रता की आत्मा वह शक्ति देती है जिससे जो सही हो हम वहीकरें (2 कुरिन्थियो 3:17) | इस प्रथम अध्याय के निष्कर्ष वचन, कठोर प्रहारी व स्मरण रखने योग्य दोनों है| धर्म निरर्थक है| सुनना और उस अनुसार कार्य न करना स्वंय को धोखा देना है (22) प्रवचन देना और स्वंय उसका पालन ना करना अपने आपको छलने जैसा है| शेखी मारना और किसी की सेवा न करना दोनों एक समान घृणित हैं| धर्म ने उपासना व आचरण के बाहरी पहलुओं का उल्लेख करना चाहिए| अधिकांश ईसाई लोग जीवन सम्बन्धी तत्वों में आध्यात्मिक विकास के लिए बपतिस्मा और दृढ़ीकरण करते हैं; अत; यह बाहरी व दिखाई दिए जाने वाले चिन्ह हैं| नैतिक रूप से परमेश्वर को इस प्रकार के आचरण वाले लोगों की आवश्यकता है जो उचित विचारोवाले लोगों को अपने आपको समर्पित कर दें, और यहाँ तक कि गलत सोच वाले लोग भी, लोगों को ना दर्शाते हुए प्रशंसा करें, ईमानदारीपूर्वक एवं दयावान रूप से कार्य करें ( मीका 3:7) | दया के एक कार्य से अधिक और कुछ भी देखने योग्य नहीं है | न्याय होना चाहिए और यह होते हुए भी दिखना चाहिए | धर्म की ओर वापस जाना स्वंय को धोखा देना है| किसी ने इस ओर संकेत दिया है कि यहाँ चार मार्ग हैं जहाँ मनुष्य अपने आप को परमेश्वर की नजर में एक संतोषजनक स्तर पर :उनकी धर्मशास्त्रीय धाराप्रवाह बोली में बार बार दोहराने के द्वारा, धार्मिक कट्टरता द्वारा, प्रवचन के अनुभव के आनंद के द्वारा,रीती रिवाजों के पालन में उनकी सत्यवादिता द्वारा, ठग सकते हैं| सभी जन साधारण को पूजनीय उपदेशक कहते हैं, “अत्यधिक धार्मिक मत बनो| (सभोपदेशक 7:16)|” फिर सच्चा, गम्भीर, अप्रभावित धर्म क्या है? सबसे पहली बात यह ‘ परमेश्वर के सामने’ (27) है, परमेश्वर की उपस्थिति व उनकी रौशनी से मनुष्य अवगत हो और उसके अंतर्गत कार्य करे याकूब की पुस्तक में इसका अर्थ है पहले उनका ध्यान रखो जो स्वंय अपनी आवश्यकताओं को पूरा करपाने में असमर्थ है जैसे अनाथ, विधवाएं आदि| यह एक बहुत बड़ी संख्या में अल्प सुविधाप्राप्त और विकलांग लोगों को प्रस्तुत करता है| याकूब ने निसंदेह रूप से अपने भाई यीशु को सभी तरह के लोगों की, अन्धो की, लंगड़ो की, कोडियों की, बहरों और गरीबों की उनकी आवश्यकतानुसार मदद करते हुए देखा था और यह जाना था कि अब वे कमजोर और असमर्थ लोगों का ध्यान रखने के लिए उन्हें हमारे हवाले कर गये हैं| परमेश्वर पिताहिनो से पिता समान और विधवाओं से न्यायाधीश के समान बात करते है (भजन संहिता 68:5)| उन लोगों के लिए जो किसी विधवा या अनाथ को दुःख देते हैं एक विशेष श्राप की घोषणा की गई है (निर्गमन 22:22) हम अनुमान नहीं लगा सकते कि परमेश्वर के पास एक उचित आशीष है उन लोगों के लिए जो ऐसे किसी को भी सहयोग करते हैं जिसकी दुनिया उपेक्षा करती है | इसमें और आगे कुछ जोड़ते हुए, एक सच्चा धार्मिक मनुष्य अपने आप को दुनिया में बेदाग रख पाता है | हम आजकल प्रदुषण के बारे में पढ़ते हैं, और उन प्रयत्नों जिनके द्वारा इस दुनिया (या पृथ्वी) को मनुष्यों के कूड़े करकट को बहा कर ले जाने वाली नालियों, कचरे या लालच द्वारा की गई लूटपाट के प्रदुषण से बचाने के लिए किये जा रहे हैं, केबारे में भी पढ़ते हैं| ईमानदारी से पालन करने वाले शुध्द हवा का ध्यान रखते हैं और प्राकृतिक संतुलन के विनाश से भयभीत हैं| अधिकतर पुरुष व महिलाएं, बच्चे इसमें शामिल नहीं हैं, अविचारपूर्ण हैं| क्योकि विश्वासियों को नैतिक और आध्यात्मिक संकटों का सामना करना पड़ता है , यह दोनों पर्यावर्णीय और अनुवांशिक हैं, सुरक्षित मार्ग यह है, सांसारिक उलझनों की भ्रष्टता को अनदेखा करें| बेंगल हमें सलाह देते हैं कि ऐसे लोगों से जिनसे हमें कोई लाभ नहीं होता , ना उन्हें हमसे होता है, सम्पर्क रखने से परहेज करें| पौलुस के पास ऐसे व्यक्तियों की सूची है जिनकी कम्पनियां हैं जिनसे कोई लाभ नहीं और उनके लिए यह विनाश का समय है| पहले भी हमें यह सूचित किया गया है कि “परन्तु दानिय्येल ने अपने मन में ठान लिया कि वह राजा का भोजन खाकर,और उसके पीने का दाखमधु पीकर अपवित्र न होए; इसलिए उस ने खोजों के प्रधान से बिनती की कि उसे अपवित्र न होना पड़े| (दानिय्येल 1:8)| ऐसे कुछ संकल्प अच्छे स्थान में खड़े हुए थे;परमेश्वर ने उसे उच्च स्थान तक ऊचां किया परन्तु वे यहोवा के प्रति ईमानदारी दर्शाने के लिए अपने चारों ओर का परिदृश्य का बलिदान करने के लिए तैयार थे| जरुरतमन्द लोगों और आवश्यक वस्तुओं से वंचित लोगों के साथ समय बिताना, हमें मुक्त करा नेवाला समय है, ऐसे जैसे कि वह क्षण जब हम प्रार्थना करते हैं| इससे सांसरिक क्रिया कलापों के लिए हमारे पास कम समय बचेगा, और इससे व्यक्ति संसार द्वारा छीटाकशी किये जाने से बचेगा व चिंतामुक्त रह सकेगा| क्या यही शुध्द धर्म है? याकूब ऐसा नहीं कहते ; वह दावा करते हैं कि असली पवित्रता हमें अन्यलोगों के लिए व्यवहारिक सम्बन्ध और पवित्र जीवन में शामिल करताहै | बाइबिल में अन्यत्र हमें आध्यात्मिक विकास व चिरस्थायी संतोष के लिए अनिवार्यताओं का स्मरण कराया गया है, और याकूब के पास इससे अधिक सत्य है जो वह हमारे साथ बाँटना चाहते हैं जैसा कि वे उनकी इस पत्री के साथ आगे आये हैं| |